शिक्षक-शिक्षण का रूप’ एक दीर्घ कालिक प्रक्रिया थी। गुरुकुल व्यवस्था के अन्तर्गत गुरुकुल में ही वास करने वाले अनेक अन्तेवासी गुरुकुल में रहते हुए सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से निरन्तर शिक्षण एवं प्रशिक्षण प्राप्त करते चलते थे। पुनश्च अनेक प्रतिभाशाली अन्तेवासी वहीं रहकर शिक्षक का काम करने लगते थे।
‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ (अर्थात् ‘इस विश्व को आर्य-भाव की मानव-स्थली बनाओ।’) ‘शिक्षा जीवन जीने और वर्तमान जीवन तथा जीवन के पश्चात् के समय को समझने की तैयारी है ..... शिक्षा राजनैतिक एवं सामाजिक आवश्यकता है ...... विजय प्राप्ति, शांति का संरक्षण, उन्नत्ति की प्राप्ति, सभ्यता का निर्माण और इतिहास की रचना युद्धभूमि में नहीं वरन् शैक्षिक संस्थानों, संस्कृति के उपजाऊ स्थलों में ही की जा सकती है। अतः शिक्षा को प्रज्ञा प्रदायी के रूप में स्वीकार किया जाता है।’