ॠग्वेद-संहिता विषय की दृष्टि से स्तुति-साहित्य है । अतः भाषा-चिन्तन इस का प्रति-पाद्य नहीं है । परन्तु साहित्य की यह एक विशेषता होती है कि यह उन बहुत-सी अन-कही कहानियों को भी कह देता है, जिन्हें कहना शायद वक्ता ने भी आवश्यक नहीं समझा हो । भाषा-चिन्तन भी उन्हीं अन-कही कहानियों में से एक है ।
इस निबन्ध मेँ ऋग्वेदसंहिता के प्रथम अष्टक के अष्टाक्षर गायत्री मेँ निबद्ध १७ और अनुष्टुप छन्द मेँ निबद्ध २ सूक्तों के कुल १९४ मन्त्रों की समीक्षा अक्षरपरिणाह की दृष्टि से की गई है । इस के अतिरिक्त वैश्वामित्र मधुच्छन्दस् के एकमात्र और सूक्त (९.१ ) के दस मन्त्रों की मीमांसा भी इससे उनका अध्ययन पूरा हो जाने की दृष्टि से की गई है।
भाषा, अग्नि और चक्र (चक्का, पहिया) ये तीन वस्तुएँ मनुष्य की अनवरत प्रवृत्त जीवनयात्रा के लिए सर्वाधिक उपयोगी उपकरण सिद्ध हुए हैं । इन तीनों में सर्वाधिक प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण उपकरण है भाषा । अग्नि दैवी वस्तु है, पर उसका उपयोग मनुष्य के हित में स्वेच्छया किया जा सकता है, यह रहस्य भेदन पूर्णतः मनुष्य की अपनी कृति है । चक्र के तो आविर्भाव का पूरा ही श्रेय मनुष्य को प्राप्त है । परन्तु भाषा इस प्रकार आधे रूप में या पूर्ण रूप में मनुष्य का अपने बलबूते से किया आविष्कार नहीं है ।
जैसा कि आपाततः स्पष्ट प्रतीत होता है निर्वचन और निरुक्त शब्द निर् + वच् से व्युत्पन्न हैं । निर्वचन के अर्थ पर श्रीमद् दुर्गसिंह का कहना है कि परोक्षवृत्ति या अतिपरोक्षवृत्ति शब्द में छुपे हुए अर्थ को निकाल करके, अर्थात् शब्द के सब अवयवों को अलग-अलग करके, कहना निर्वचन कहलाता है । यह तो है यौगिक अर्थ । निर्वचन और निरुक्त शब्द योगरूढ हैं । अर्थात् इनसे केवल छुपे हुए अर्थ को निकालकर कहने का ही भाव नहीं प्रकट होता, अपितु इस प्रकार कहने वाला शास्त्र अर्थ प्रकट होता है । ये दोनों शब्द कब से इस विशिष्ट अर्थ में रूढ हुए ?